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श्रीसर्वेश्वर प्रभु सृष्टि के सबसे सूक्ष्म शालिग्राम श्री नारद एवम सनकादिक मुनियों द्वारा श्रीनिम्बार्क भगवान को प्राप्त हुए जो आज भी निम्बार्कतीर्थ में विराजमान हैं। सूक्ष्म दक्षिणावर्ती चक्राङ्कित शालिग्राम अर्चा विग्रह श्रीसर्वेश्वर प्रभु भगवान् श्रीनिम्बार्काचार्यजी के पश्चात् उत्तरोत्तरवर्ती सभी पूर्वाचार्यों द्वादश आचार्यों तथा अष्टादश भट्टाचार्यों द्वारा संसेवित होते रहे। कालान्तर में श्रीसर्वेश्वर प्रभु की यह सेवा जगदगुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज को संप्राप्त हुई । पश्चात् विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज की आज्ञा पाकर “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” की सेवा को लेकर जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज ने पुष्कर क्षेत्र के पावन प्रदेश में आकर भगवद्विमुख प्राणियों को सद्धर्म में लगाते हुए वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया और श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ की स्थापना की।
अतः परम्परागत नियमानुसार “श्रीसर्वेश्वरप्रभु” श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ में ही विराजते हैं और जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर ही इस विश्वव्यापी बृहद् निम्बार्क सम्प्रदाय के एकमात्र आचार्य कहलाते हैं । “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” इन्हीं आचार्यश्री के परमाराध्य ठाकुर हैं । श्रीनिम्बार्काचार्य पद पर आरूढ़ होने की प्रमुख अहर्ता शास्त्रज्ञ होना तथा नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पूर्वक अपरस में श्रीसर्वेश्वर प्रभु की नित्य सेवा करना अनुलंघ्नीय मर्यादा हैं जिसका अस्वस्थ होने अथवा अत्यंत वृद्धावस्था के इतर कथमपि व्यतिक्रम नहीं हो सकता। आचार्य “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” की अर्चा स्वयं न करें कही प्रवास में पधारें तो श्रीसर्वेश्वर प्रभु उनके कंठ में न विराजे ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की तो कल्पना ही परम्परा मार्ग में नही की जा सकती “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” की यह प्रतिमा प्रातः स्मरणीय विद्यातपोनिष्ठ पूर्वाचार्यों द्वारा संसेवित तथा अति प्राचीन होने से अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है । इस प्रकार “श्रीसर्वेश्वर प्रभु” श्रीनिम्बार्क भगवान् के एक परमोपास्य श्रीविग्रह हैं और इनकी महिमा बड़ी ही महान् तथा विलक्षण है ।
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